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    छायावाद की परिभाषा देते हुए छायावाद और रहस्यवाद के संबंध की चर्चा कीजिए।

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    छायावाद

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    छायावाद

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    छायावाद हिंदी साहित्य के रोमांटिक उत्थान की वह काव्य-धारा है जो लगभग ई.स. 1918 से 1936 तक की प्रमुख युगवाणी रही।

    [1] जयशंकर प्रसाद, सूर्यकान्त त्रिपाठी 'निराला', सुमित्रानंदन पंत, महादेवी वर्मा, पंडित माखन लाल चतुर्वेदी इस काव्य धारा के प्रतिनिधि कवि माने जाते हैं। छायावाद नामकरण का श्रेय मुकुटधर पाण्डेय को जाता है।

    [2] मुकुटधर पाण्डेय ने श्री शारदा पत्रिका में एक निबंध प्रकाशित किया जिस निबंध में उन्होंने छायावाद शब्द का प्रथम प्रयोग किया | प्रकृति प्रेम, नारी प्रेम, मानवीकरण, सांस्कृतिक जागरण, कल्पना की प्रधानता आदि छायावादी काव्य की प्रमुख विशेषताएं हैं। छायावाद ने हिंदी में खड़ी बोली कविता को पूर्णतः प्रतिष्ठित कर दिया। इसके बाद ब्रजभाषा हिंदी काव्य धारा से बाहर हो गई। इसने हिंदी को नए शब्द, प्रतीक तथा प्रतिबिंब दिए। इसके प्रभाव से इस दौर की गद्य की भाषा भी समृद्ध हुई। इसे 'साहित्यिक खड़ीबोली का स्वर्णयुग' कहा जाता है।

    छायावाद के नामकरण का श्रेय 'मुकुटधर पांडेय' को दिया जाता है। इन्होंने सर्वप्रथम 1920 ई में जबलपुर से प्रकाशित श्रीशारदा (जबलपुर) पत्रिका में 'हिंदी में छायावाद' नामक चार निबंधों की एक लेखमाला प्रकाशित करवाई थी।[3] मुकुटधर पांडेय जी द्वारा रचित कविता "कुररी के प्रति" छायावाद की प्रथम कविता मानी जाती है ।

    अनुक्रम

    1 परिचय

    2 विभिन्न आलोचकों की दृष्टि में छायावाद

    3 छायावादी कवियों की दृष्टि में

    4 छायावाद की मुख्य विशेषताएँ (प्रवृत्तियाँ)

    4.1 आत्माभिव्यक्ति

    4.2 नारी-सौंदर्य और प्रेम-चित्रण

    4.3 प्रकृति प्रेम

    4.4 राष्ट्रीय / सांस्कृतिक जागरण

    4.5 रहस्यवाद 4.6 स्वच्छन्दतावाद

    4.7 कल्पना की प्रधानता

    4.8 दार्शनिकता

    4.9 शैलीगत प्रवृत्तियाँ

    5 सन्दर्भ 6 इन्हें भी देखें 7 बाहरी कड़ियाँ

    परिचय[संपादित करें]

    हिंदी कविता में छायावाद का युग द्विवेदी युग के बाद आया। द्विवेदी युग की कविता नीरस उपदेशात्मक और इतिवृत्तात्मक थी। छायावाद में इसके विरुद्ध विद्रोह करते हुए कल्पनाप्रधान, भावोन्मेशयुक्त कविता रची गई। यह भाषा और भावों के स्तर पर अपने दौर के बांग्ला के सुप्रसिद्ध कवि और नोबेल पुरस्कार विजेता रवींद्रनाथ ठाकुर की गीतांजली से बहुत प्रभावित हुई। यह प्राचीन संस्कृत साहित्य (वेदों, उपनिषदों तथा कालिदास की रचनाओं) और मध्यकालीन हिंदी साहित्य (भक्ति और श्रृंगार की कविताओं) से भी प्रभावित हुई। इसमें बौद्ध दर्शन और सूफी दर्शन का भी प्रभाव लक्षित होता है। छायावादयुग उस सांस्कृतिक और साहित्यिक जागरण का सार्वभौम विकासकाल था जिसका आरंभ राष्ट्रीय परिधि में भारतेंदुयुग से हुआ था।

    वस्तुजगत् अपना घनत्व खोकर इस जग मेंसूक्ष्म रूप धारण कर लेता, भावद्रवित हो।

    कवि के केवल सूक्ष्म भावात्मक दर्शन का ही नहीं, 'छाया' से उसके सूक्ष्म कलाभिव्यजंन का भी परिचय मिलता है। उसकी काव्यकला में वाच्यार्थ की अपेक्षा लाक्षणिकता और ध्वन्यात्मकता है। अनुभूति की निगूढ़ता के कारण अस्फुटता भी है। शैली में राग की नवोद्बुद्धता अथवा नवीन व्यंजकता है।

    द्विवेदी युग में कविता का ढाँचा पद्य का था। वस्तुत: गद्य का प्रबंध ही उसमें पद्य हो गया था, भाषा भी गद्यवत् हो गई थी। छायावाद ने पद्य का ढाँचा तोड़कर खड़ी बोली को काव्यात्मक बना दिया। पद्य में स्थूल इतिवृत्त था, छायावाद के काव्य में भावात्मक अतंर्वृत्त था, छायावाद के काव्य में भावात्मक अंतर्वृत्त आ गया। भाव के अनुरूप ही छायावाद की भाषा और छंद भी रागात्मक और रसात्मक हो गया। ब्रजभाषा के बाद छायावाद द्वारा गीतकाव्य का पुनरुत्थान हुआ। छायावाद युग के प्रतिनिधि कवि हैं- प्रसाद, निराला, पंत, महादेवी, रामकुमार। पूर्वानुगामी सहयोगी हैं- माखनलाल और 'नवीन'।

    गीतकाव्य के बाद छायावाद में भी महाकाव्य का निर्माण हुआ। तुलसीदास जैसे 'स्वांत:' को लेकर लोकसंग्रह के पथ पर अग्रसर हुए थे वैसे ही छायावाद के कवि भी 'स्वात्म' को लेकर एकांत के स्वगत जगत् से सार्वजनिक जगत् में अग्रसर हुए। प्रसाद की 'कामायनी' और पंत का 'लोकायतन' इसका प्रमाण है। 'कामायनी' सिंधु में विंदु (एकांत अंतर्जगत्) की ओर है, 'लोकायतन' विंदु में सिंधु (सार्वजनिक जगत्) की ओर।

    विभिन्न आलोचकों की दृष्टि में छायावाद[संपादित करें]

    रामचंद्र शुक्ल ने हिंदी साहित्य का इतिहास में लिखा है कि- "संवत् १९७० के आसपास मैथिलीशरण गुप्त, मुकुटधर पांडेय आदि कवि खड़ीबोली काव्य को अधिक कल्पनामय, चित्रमय और अंतर्भाव व्यंजक रूप-रंग देने में प्रवृत्त हुए।[4] यह स्वच्छन्द और नूतन पद्धति अपना रास्ता निकाल रही थी कि रवीन्द्रनाथ की रहस्यात्मक कविताओं की धूम हुई। और कई कवि एक साथ रहस्यवाद और प्रतीकवाद अथवा चित्रभाषावाद को ही एकांत ध्येय बनाकर चल पड़े। चित्रभाषा या अभिव्यंजन पद्धति पर ही जब लक्ष्य टिक गया तब उसके प्रदर्शन के लिए लौकिक या अलौकिक प्रेम का क्षेत्र ही बाकी समझा गया। इस बँधे हुए क्षेत्र के भीतर चलनेवाले काव्य ने छायावाद नाम ग्रहण किया।

    छायावादी शब्द का प्रयोग दो अर्थों में समझना चाहिये। एक तो रहस्यवाद के अर्थ में, जहाँ उसका संबंध काव्य-वस्तु से होता है अर्थात् जहाँ कवि उस अनंत और अज्ञात प्रियतम को आलंबन बनाकर अत्यंत चित्रमयी भाषा में प्रेम का अनेक प्रकार से व्यंजन करता है। इस अर्थ का दूसरा प्रयोग काव्य-शैली या पद्धति-विशेष के व्यापक अर्थ में होता है’ छायावाद का सामान्यतः अर्थ हुआ प्रस्तुत के स्थान पर उसकी व्यंजना करनेवाली छाया के रूप में अप्रस्तुत का कथन। छायावाद का चलन द्विवेदी काल की रूखी इतिवृत्तात्मक (कथात्मकता) की प्रतिक्रिया के रूप में हुआ था। जैसे, "धूल की ढेरी में अनजाने, छिपे हैं मेरे मधुमय गान।""

    नंददुलारे वाजपेयी ने लिखा है कि- "प्रकृति के सूक्ष्म किन्तु व्यक्त सौंदर्य में आध्यात्मिक छाया का भान मेरे विचार से छायावाद की एक सर्वमान्य व्याख्या होनी चाहिए।’

    हजारी प्रसाद द्विवेदी ने हिंदी साहित्य का उद्भव और विकास में लिखा है कि- "द्वितीय महायुद्ध के समाप्त होते सारे देश में नई चेतना की लहर दौड़ गई। सन् १९२९ में महात्मा गांधी के नेतृत्व में भारतवर्ष विदेशी गुलामी को झाड़-फेंकने के लिए कटिबद्ध हो गया। इसे सिर्फ राजनीति तक ही सीमित नहीं समझना चाहिये। यह संपूर्ण देश का आत्म स्वरूप समझने का प्रयत्न था और अपनी गलतियों को सुधार कर संसार की समृद्ध जातियों की प्रति- द्वंद्विता में अग्रसर होने का संकल्प था। संक्षेप में, यह एक महान सांस्कृतिक आंदोलन था। चित्तगत उन्मुखता इस कविता का प्रधान उद्गम थी और बदलते हुए मानो के प्रति दृढ आस्था इसका प्रधान सम्बल। इस श्रेणी के कवि ग्राहिकाशक्ति से बहुत अधिक संपन्न थे और सामाजिक विषमता और असामंजस्यों के प्रति अत्यधिक सजग थे। शैली की दृष्टि से भी ये पहले के कवियों से एकदम भिन्न थे। इनकी रचना मुख्यतः विषयि प्रधान थी। सन् 1920 की खड़ीबोली कविता में विषयवस्तु की प्रधानता बनी हुई थी। परंतु इसके बाद की कविता में कवि के अपने राग-विराग की प्रधानता हो गई। विषय अपने आप में कैसा है ? यह मुख्य बात नहीं थी। बल्कि मुख्य बात यह रह गई थी कि विषयी (कवि) के चित्त के राग-विराग से अनुरंजित होने के बाद विषय कैसा दीखता है ? परिणाम विषय इसमें गौण हो गया और कवि प्रमुख।"

    स्रोत : hi.wikipedia.org

    छायावाद

    आधुनिक हिन्दी काव्यधारा के विकास में छायावाद का महत्वपूर्ण स्थान है। छायावाद ने न केवल अंतर्वस्तु के स्तर पर अपितु […]

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    Home हिंदी साहित्य छायावाद

    छायावाद

    By IASbook July 16, 2020 हिंदी साहित्य 1 Comment

    आधुनिक हिन्दी काव्यधारा के विकास में छायावाद का महत्वपूर्ण स्थान है। छायावाद ने न केवल अंतर्वस्तु के स्तर पर अपितु काव्य भाषा और संरचना की दृष्टि से भी हिन्दी कविता को समृद्ध किया है। इस इकाई में छायावाद की इन्हीं विशिष्टताओं से आपका परिचय कराया जाएगा। इस इकाई को पढ़ने के बाद आप:

    स्वच्छन्दतावाद और छायावाद के अंतर्संबंध को जान सकेंगे;

    छायावाद के अर्थ और स्वरूप से परिचित हो सकेंगे;

    छायावाद और संस्कृत की काव्यशास्त्रीय परम्परा के संबंध की चर्चा कर सकेंगे; और

    छायावाद की मूल प्रवृत्तियों की जानकारी दे सकेंगे।

    हिंदी की रोमांटिक स्वच्छंदतावादी काव्यधारा की विकसित अवस्था को ‘छायावाद’ नाम से जाना जाता है। उसकी प्रमुख प्रवृत्तियों और हास के कारणों के बारे में अब कोई उल्लेखनीय विवाद नहीं रह गया है। बीसवीं शताब्दी के हिंदी कविता के सबसे समर्थ और महत्वपूर्ण काव्यांदोलन के रूप में छायावाद की स्वीकृति के बारे में व्यापक सहमति है। शताब्दी के आरंभ में जब काव्य-प्रवृत्ति के लक्षण दिखाई पड़े, तब जिस बात ने विद्वानों का ध्यान आकर्षित किया, वह थी रीतिकालीन काव्य-रूढ़ियों से मुक्ति।

    अभिव्यक्ति के माध्यम के रूप में ब्रजभाषा को अपदस्थ करने के लिए आचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदी पहले ही व्यापक आंदोलन चला चुके थे। आपने इकाई सं-14 द्विवेदी युग’ में पढ़ा कि द्विवेदी जी के प्रयत्नों से, खड़ी बोली काव्य-भाषा के रूप में प्रतिष्ठित भी हो चुकी थी। पर जैसा आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने कहा है : “उसी समय पिछले संस्कृत-काव्य के संस्कारों के साथ पं. महावीरप्रसाद द्विवेदी हिंदी साहित्य-क्षेत्र में आए – जिससे इतिवृत्तात्मक (मैटर ऑफ़ फैक्ट) पद्यों का खड़ी बोली में ढेर लगने लगा।” यानी काव्य-भाषा तो खड़ी बोली हो गई, पर काव्य-शैली में रीतिकालीन चमत्कारात्मकता, सरसता, विदग्धता आदि का स्थान । इतिवृत्तात्मकता ने ले लिया। आज शुक्ल जी की यह स्थापना निर्विवाद रूप से स्वीकृत है कि रीतिकाल की रूढ़ियों को तोड़कर “स्वच्छंदता का आभास पहले-पहल पं. श्रीधर पाठक ने ही दिया।” और “सब बातों का विचार करने पर पं. श्रीधर पाठक ही सच्चे स्वच्छंदतावाद (रोमैंटिसिज्म) के प्रवर्तक ठहरते हैं।”

    किन्तु इस स्वच्छंतावाद के स्वाभाविक विकास की जो रूपरेखा आचार्य शुक्ल ने प्रस्तुत की है, उसके बारे में बाद के विद्वानों में सहमति नहीं हो सकी। शुक्ल जी ने श्रीधर पाठक की कविता में जिसे “सच्ची और स्वाभाविक स्वच्छंदता का मार्ग” कहा उनके अनुसार वह “हमारे काव्य-क्षेत्र के बीच चल न पाया”। जिन “इने-गिने नए कवियों” में आचार्य शुक्ल ने ‘स्वच्छंदता के स्वाभाविक पथ’ का विकास देखा उनमें उन्होंने रामनेरश त्रिपाठी, मुकुटधर पाण्डेय, माखनलाल चतुर्वेदी, सियारामशरण गुप्त, बालकृष्ण शर्मा ‘नवीन’, सुभद्राकुमारी चौहान, गुरुभक्त सिंह ‘भक्त’, उदयशंकर भट्ट जैसे कवियों की तो गणना की, पर उनमें जयशंकर प्रसाद, सुमित्रानंदन पंत, सूर्यकांत त्रिपाठी निराला’, महादेवी वर्मा आदि को स्थान नहीं दिया।

    उनका कहना था कि रवींद्र बाबू की गीतांजलि की धूम उठ जाने के कारण नवीनता प्रदर्शन के इच्छुक नए कवियों में से कुछ लोग तो बंग भाषा की रहस्यात्मक कविताओं की रूपरेखा लाने में लगे, कुछ लोग पाश्चात्य काव्य-पद्धति को विश्व-साहित्य’ का लक्षण समझ उसके अनुकरण में तत्पर हुए।” उनके इस कथन में इशारा उन कवियों की ओर ही है जिन्हें बाद में ‘छायावाद’ के कवियों के रूप में जाना गया। आचार्य शुक्ल ने इन्हें उन कवियों से अलग करके देखा जिन्हें वे ‘स्वच्छंदतावाद’ के भीतर गिनते थे और उनकी कविता में सच्ची नैसर्गिक स्वच्छंदता’ के दर्शन करते थे।

    आप पढ़ोगे [hide]

    1 स्वच्छंदतावाद और छायावाद

    2 प्रवर्तन का प्रश्न

    3 परिभाषा की समस्या

    3.1 छायावाद और रहस्यवाद

    3.2 स्थूल के विरुद्ध सूक्ष्म का विद्रोह

    4 छायावाद की मूल प्रवृत्तियाँ

    5 सारांश

    स्वच्छंदतावाद और छायावाद

    हिंदी में इस प्रकार रोमैंटिसिज्म’ के लिए स्वच्छंदतावाद’ शब्द आ जाने के बाद छायावादी कविता को आरंभिक स्वच्छंद काव्य-धारा से ही नहीं, बल्कि उसकी परवर्ती परंपरा से भी अलग करके देखने की परिपाटी चल पड़ी। इसी बीच हिंदी की रहस्यात्मक कविताओं की चर्चा के प्रसंग में अंग्रेज़ी के ‘मिस्टिसिज़्म’ शब्द का उल्लेख किया गया जिसका परिणाम यह हुआ कि आरंभ में बहुत दिनों तक छायावादी कविताओं के लिए रहस्यवाद’ शब्द का प्रयोग भी होता रहा। पर वास्तविकता यह है कि शुक्ल जी ने जिन कवियों की कविताओं में ‘सच्चे स्वच्छंदतावाद’ का स्वरूप देखा था, उनके ‘सच्चे स्वच्छंदतावाद’ में भी और बातों के अलावा ‘रहस्यपूर्ण संकेत’ मौजूद है। इसलिए केवल राविन्द्रिक प्रभाव के अनुमान के कारण छायावाद को स्वच्छंदतावादी काव्य-परंपरा से बाहर नहीं किया जा सकता।

    छायावाद के आरंभ में होने वाले तात्कालिक विवादों का कोलाहल शांत हो जाने के बाद अब यह बात भली-भाँति स्पष्ट होकर सामने आ चुकी है कि ‘छायावाद’ हिंदी की अपनी रोमैंटिक अथवा स्वच्छंदतावादी काव्यधारा की ही विकसित अवस्था है। इसके पहले चरण के कवि हैं श्रीधर पाठक, रामनरेश त्रिपाठी, मुकुटधर पाण्डेय आदि जिन्हें आ. शुक्ल ‘सच्चे स्वच्छंदतावादी’ कहते थे और दूसरे चरण में इसी काव्य-प्रवृत्ति को प्रौढ़तम उत्कर्ष तक पहुँचाने वाले कवि प्रसाद, पंत, निराला और महादेवी थे जिन्हें ‘छायावाद’ के कवि माना जाने लगा।

    प्रवर्तन का प्रश्न

    छायावाद का आरंभ किस कवि की किस रचना से माना जाए यह प्रश्न आज भी विवादास्पद है। सुमित्रानंदन पंत ने अपनी पुस्तक ‘छायावाद : पुनर्मूल्यांकन’ में इस प्रश्न पर विस्तार से विचार किया है। उन्होंने प्रसाद को छायावाद का प्रवर्तक मानने के पक्ष में ‘भावना की दृष्टि से आदर’ व्यक्त किया। पर लगे हाथों ‘तथ्य-विश्लेषण की दृष्टि से’ उन्होंने इस मान्यता का विरोध किया। इस बारे में उन्होंने जो तथ्य प्रस्तुत किए हैं उनका सार यही है कि “सन 1919 में प्रकाशित ‘झरना’ के प्रथम संस्करण की 24 कविताओं में कोई ऐसी विशिष्टता नहीं थी जिस पर ध्यान जाता। दरअसल छायावादी प्रवृत्ति से युक्त प्रसाद जी की कविताएँ झरना’ के दूसरे संस्करण में पहली बार सन् 1927 में ही प्रकट हुई। इसके अलावा उनके ‘कानन-कुसुम’, ‘प्रम-पथिक’ आदि काव्य सन् 1923 के बाद ही प्रकाश में आए। इनमें से ‘कानन-कुसुम’ में द्विवेदी-युग के ढंग की ही रचनाएँ थीं। पंत जी का दावा है कि “मेरी प्राय: सभी ‘पल्लव’ में प्रकाशित रचनाएँ दो वर्ष पूर्व से अर्थात् सन् 1923 के मध्य से सरस्वती में प्रकाशित होने लगी थीं।”

    स्रोत : www.iasbook.com

    छायावाद क्या है?

    द्विवेदी युग के पश्चात हिंदी साहित्य में जो कविता-धारा प्रवाहित हुई, वह छायावादी कविता के नाम से प्रसिद्ध हुई। छायावाद की कालावधि सन् 1917...

    छायावाद क्या है?

    अक्तूबर 19, 2011

    द्विवेदी युग के पश्चात हिंदी साहित्य में जो कविता-धारा प्रवाहित हुई, वह छायावादी कविता के नाम से प्रसिद्ध हुई। छायावाद की कालावधि सन् 1917 से 1936 तक मानी गई है। वस्तुत: इस कालावधि में छायावाद इतनी प्रमुख प्रवृत्ति रही है कि सभी कवि इससे प्रभावित हुए और इसके नाम पर ही इस युग को छायावादी युग कहा जाने लगा।

    छायावाद क्या है?

    छायावाद के स्वरूप को समझने के लिए उस पृष्ठभूमि को समझ लेना आवश्यक है,जिसने उसे जन्म दिया। साहित्य के क्षेत्र में प्राय: एक नियम देखा जाता है कि पूर्ववर्ती युग के अभावों को दूर करने के लिए परवर्ती युग का जन्म होता है। छायावाद के मूल में भी यही नियम काम कर रहा है। इससे पूर्व द्विवेदी युग में हिंदी कविता कोरी उपदेश मात्र बन गई थी। उसमें समाज सुधार की चर्चा व्यापक रूप से की जाती थी और कुछ आख्यानों का वर्णन किया जाता था। उपदेशात्मकता और नैतिकता की प्रधानता के कारण कविता में नीरसता आ गई। कवि का हृदय उस निरसता से ऊब गया और कविता में सरसता लाने के लिए वह छटपटा उठा। इसके लिए उसने प्रकृति को माध्यम बनाया। प्रकृति के माध्यम से जब मानव-भावनाओं का चित्रण होने लगा,तभी छायावाद का जन्म हुआ और कविता इतिवृत्तात्मकता को छोड़कर कल्पना लोक में विचरण करने लगी।

    छायावाद की परिभाषा

    छायावाद अपने युग की अत्यंत व्यापक प्रवृत्ति रही है। फिर भी यह देख कर आश्चर्य होता है कि उसकी परिभाषा के संबंध में विचारकों और समालोचकों में एकमत नहीं हो सका। विभिन्न विद्वानों ने छायावाद की भिन्न-भिन्न परिभाषाएं की हैं।

    आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने छायावाद को स्पष्ट करते हुए लिखा है -"छायावाद शब्द का प्रयोग दो अर्थों में समझना चाहिए। एक तो रहस्यवाद के अर्थ में,जहां उसका संबंध काव्य-वस्तु से होता है अर्थात् जहां कवि उस अनंत और अज्ञात प्रियतम को को आलम्बन बनाकर अत्यंत चित्रमयी भाषा में प्रेम की अनेक प्रकार से व्यंजना करता है। छायावाद शब्द का दूसरा प्रयोग काव्य शैली या पद्धति-विशेष के व्यापक अर्थ में है।... छायावाद एक शैली विशेष है,जो लाक्षणिक प्रयोगों,अप्रस्तुत   विधानों और अमूर्त उपमानों को लेकर चलती है।" दूसरे अर्थ में उन्होंने छायावाद को चित्र-भाषा-शैली कहा है।

    महादेवी वर्मा ने छायावाद का मूल सर्वात्मवाद दर्शन में माना है। उन्होंने लिखा है कि "छायावाद का कवि धर्म के अध्यात्म से अधिक दर्शन के ब्रह्म का ऋणी है, जो मूर्त और अमूर्त विश्व को  मिलाकर पूर्णता पाता है। ... अन्यत्र वे लिखती हैं कि छायावाद प्रकृति के बीच जीवन का उद्-गीथ है।

    डॉ. राम कुमार वर्मा ने छायावाद और रहस्यवाद में कोई अंतर नहीं माना है। छायावाद के विषय में उनके शब्द हैं- "आत्मा और परमात्मा का गुप्त वाग्विलास रहस्यवाद है और वही छायावाद है। एक अन्य स्थल पर वे लिखते हैं - "छायावाद या रहस्यवाद जीवात्मा की उस अंतर्निहित प्रवृत्ति का प्रकाशन है जिसमें वह दिव्य और अलौकिक सत्ता से अपना शांत और निश्चल संबंध जोड़ना चाहती है और यह संबंध इतना बढ़ जाता है कि दोनों में कुछ अंतर ही नहीं रह जाता है।...परमात्मा की छाया आत्मा पर पड़ने लगती है और आत्मा की छाया परमात्मा पर। यही छायावाद है।"

    आचार्य नंददुलारे वाजपेयी का मंतव्य है -"मानव अथवा प्रकृति के सूक्ष्म किंतु व्यक्त सौंदर्य में आध्यात्मिक छाया का भान मेरे विचार से छायावाद की एक सर्वमान्य व्याख्या हो सकती है। छायावाद की व्यक्तिगत विशेषता दो रूपों में दीख पड़ती है- एक सूक्ष्म और काल्पनिक अनुभूति के प्रकाश में और दूसरी लाक्षणिक और प्रतीकात्मक शब्दों के प्रयोग में। और इस आधार पर तो यह कहा ही जा सकता है कि छायावाद आधुनिक हिंदी-कविता की वह शैली है जिसमें सूक्ष्म और काल्पनिक सहानुभूति को लाक्षणिक एवं प्रतीकात्मक ढ़ंग पर प्रकाशित करते हैं।"

    शांतिप्रिय द्विवेदी ने छायावाद और रहस्यवाद में गहरा संबंध स्थापित करते हुए कहा है-"जिस प्रकार मैटर ऑफ़ फैक्ट(इतिवृत्तात्मक) के आगे की चीज छायावाद है उसी प्रकार छायावाद के आगे की चीज रहस्यवाद है।"

    गंगाप्रसाद पांडेय ने छायावाद पर इस प्रकार प्रकाश डाला है-"छायावाद नाम से ही उसकी छायात्मकता स्पष्ट है। विश्व की किसी वस्तु में एक अज्ञात सप्राण छाया की झांकी पाना अथवा उसका आरोप करना ही छायावाद है। ...जिस प्रकार छाया स्थूल वस्तुवाद के आगे की चीज है, उसी प्रकार रहस्यवाद छायावाद के आगे की चीज है।"

    जयशंकर प्रसाद ने छायावाद को अपने ढ़ग से परिभाषित करते हुए कहा है - "कविता के क्षेत्र में पौराणिक युग की किसी घटना अथवा देश-विदेश की सुंदरी के बाह्य वर्णन से भिन्न जब वेदना के आधार पर स्वानुभूतिमयी अभिव्यक्ति होने लगी तब हिंदी में उसे छायावाद के नाम से अभिहित किया गया।"

    डॉ. देवराज छायावाद को आधुनिक पौराणिक धार्मिक चेतना के विरुद्ध आधुनिक लौकिक चेतना का विद्रोह स्वीकार करते हैं।

    डॉ. नगेन्द्र छायावाद को स्थूल के प्रति सूक्ष्म का विद्रोह मानते हैं और साथ ही यह भी स्वीकार करते हैं कि "छायावाद एक विशेष प्रकार की भाव-पद्धति है। जीवन के प्रति एक विशेष प्रकार का भावात्मक दृष्टिकोण है। उन्होंने इसकी मूल प्रवृत्ति के विषय में लिखा है कि वास्तव पर अंतर्मुखी दृष्टि डालते हुए,उसको वायवी अथवा अतीन्द्रीय रूप देने की प्रवृत्ति ही मूल वृत्ति है। उनके विचार से, युग की उदबुद्ध चेतना ने बाह्य अभिव्यक्ति से निराश होकर जो आत्मबद्ध अंतर्मुखी साधना आरंभ की वह काव्य में छायावाद के रूप में अभिव्यक्त हुई। वे छायावाद को अतृप्त वासना और मानसिक कुंठाओं का परिणाम स्वीकार करते हैं।

    डॉ. नामवर सिंह ने अपनी पुस्तक "छायावाद" में विश्वसनीय तौर पर दिखाया कि छायावाद वस्तुत: कई काव्य प्रवृत्तियों का सामूहिक नाम है और वह उस "राष्ट्रीय जागरण की काव्यात्मक अभिव्यक्ति" है जो एक ओर पुरानी रुढ़ियों से मुक्ति पाना चाहता था और दूसरी ओर विदेशी पराधीनता से।

    उपर्युक्त परिभाषाओं से छायावाद की अनेक परिभाषाएं स्पष्ट होती हैं, किंतु एक सर्वसम्मत परिभाषा नहीं बन सकी। उपरिलिखित परिभाषाओं से यह भी व्यक्त होता है कि छायावाद स्वच्छंदतावाद (रोमांटिसिज्म) के काफी समीप है।

    उपर्युक्त परिभाषाओ को समन्वित करते हुए हम कह सकते हैं कि "संसार के प्रत्येक पदार्थ में आत्मा के दर्शन करके तथा प्रत्येक प्राण में एक ही आत्मा की अनुभूति करके इस दर्शन और अनुभूति को लाक्षणिक और प्रतीक शैली द्वारा व्यक्त करना ही छायावाद है।"

    आधुनिक काल के छायावाद का निर्माण भारतीय और यूरोपिय भावनाओं के मेल से हुआ है, क्योंकि उसमें एक ओर तो सर्वत्र एक ही आत्मा के दर्शन की भारतीय भावना है और दूसरी ओर उस बाहरी स्थूल जगत के प्रति विद्रोह है, जो पश्चिमी विज्ञान की प्रगति के कारण अशांत एवं दु:खी है।

    स्रोत : hindikaitihaas.blogspot.com

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    Mohammed 7 day ago
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