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    1991 ke arthik sudharon ke bad udyog vishesh roop se sarvajanik kshetra ke liye aarakshit they

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    भारत में आर्थिक सुधार

    भारत में आर्थिक सुधार

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    पी वी नरसिंह राव ने १९९० के दशक के आरम्भिक दिनों में सुधारवादी आर्थिक नीतियाँ लागू कीं

    ऐति‍हासि‍क रूप से, लम्बे समय तक भारत एक बहुत वि‍कसि‍त आर्थिक व्‍यवस्‍था थी जि‍सके वि‍श्‍व के अन्‍य भागों के साथ मजबूत व्‍यापारि‍क सम्बन्ध थे। औपनि‍वेशि‍क युग ( 1773–1947 ) के दौरान अंग्रेज भारत से सस्‍ती दरों पर कच्‍ची सामग्री खरीदा करते थे और तैयार माल भारतीय बाजारों में सामान्‍य मूल्‍य से कहीं अधि‍क उच्‍चतर कीमत पर बेचा जाता था जि‍सके परि‍णामस्‍वरूप स्रोतों का बहुत अधिक द्विमार्गी ह्रास होता था। इस अवधि‍ के दौरान वि‍श्‍व की आय में भारत का हि‍स्‍सा 1700 ईस्वी के 22.3 प्रतिशत से गि‍रकर 1952 में 3.8 प्रति‍शत रह गया। 1947 में भारत के स्‍वतंत्रता प्राप्‍ति‍ के पश्‍चात अर्थव्‍यवस्‍था की पुननि‍र्माण प्रक्रि‍या प्रारंभ हुई। इस उद्देश्‍य से वि‍भि‍न्‍न नीति‍यॉं और योजनाऍं बनाई गयीं और पंचवर्षीय योजनाओं के माध्‍यम से कार्यान्‍वि‍त की गयी।

    1950 में जब भारत ने 3.5 प्रतिशत की विकास दर हासिल कर ली थी तो कई अर्थशास्त्रियों ने इसे ब्रिटिश राज के अंतिम 50 सालों की विकास दर से तिगुना हो जाने का जश्न मनाया था। समाजवादियों ने इसे भारत की आर्थिक नीतियों की जीत करार दिया था, वे नीतियां जो अंतर्मुखी थीं और सार्वजनिक क्षेत्रों के उपक्रमों के वर्चस्व वाली थीं। हालांकि 1960 के दशक में ईस्ट इंडियन टाइगरों (दक्षिण कोरिया, ताईवान, सिंगापुर और हांगकांग) ने भारत से दोगुनी विकास दर हासिल कर ली थी। जो इस बात का प्रमाण था कि उनकी बाह्यमुखी और निजी क्षेत्र को प्राथमिकता देने वाली आर्थिक नीतियां बेहतर थीं। ऐसे में भारत के पास 80 के दशक की बजाय एक दशक पहले 1971 में ही आर्थिक सुधारों को अपनाने के लिए एक अच्छा उदाहरण मिल चुका था।

    भारत में 1980 तक जीएनपी की विकास दर कम थी, लेकिन 1981 में आर्थिक सुधारों के शुरू होने के साथ ही इसने गति पकड़ ली थी। 1991 में सुधार पूरी तरह से लागू होने के बाद तो यह मजबूत हो गई थी। 1950 से 1980 के तीन दशकों में जीएनपी की विकास दर केवल 1.49 फीसदी थी। इस कालखंड में सरकारी नीतियों का आधार समाजवाद था। आयकर की दर में 97.75 प्रतिशत तक की वृद्धि देखी गयी। कई उद्योगों का राष्ट्रीयकरण कर दिया गया। सरकार ने अर्थव्यवस्था पर पूरी तरह से नियंत्रण के प्रयास और अधिक तेज कर दिए थे। 1980 के दशक में हल्के से आर्थिक उदारवाद ने प्रति व्यक्ति जीएनपी की विकास दर को बढ़ाकर प्रतिवर्ष 2.89 कर दिया। 1990 के दशक में अच्छे-खासे आर्थिक उदारवाद के बाद तो प्रति व्यक्ति जीएनपी बढ़कर 4.19 फीसदी तक पहुंच गई। 2001 में यह 6.78 फीसदी तक पहुंच गई।

    1991 में भारत सरकार ने महत्‍वपूर्ण आर्थिक सुधार प्रस्‍तुत कि‍ए जो इस दृष्‍टि‍ से वृहद प्रयास थे कि इनमें वि‍देश व्‍यापार उदारीकरण, वि‍त्तीय उदारीकरण, कर सुधार और वि‍देशी नि‍वेश के प्रति‍ आग्रह शामि‍ल था। इन उपायों ने भारतीय अर्थव्‍यवस्‍था को गति‍ देने में मदद की। तब से भारतीय अर्थव्‍यवस्‍था बहुत आगे नि‍कल आई है। सकल स्‍वदेशी उत्‍पाद की औसत वृद्धि दर (फैक्‍टर लागत पर) जो 1951–91 के दौरान 4.34 प्रति‍शत थी, 1991-2011 के दौरान 6.24 प्रति‍शत के रूप में बढ़ गयी। २०१५ में भारतीय अर्थव्यवस्था २ ट्रिलियन अमेरिकी डॉलर से आगे निकल गयी।

    अनुक्रम

    1 परिचय 2 सन्दर्भ 3 इन्हें भी देखें 4 बाहरी कड़ियाँ

    परिचय[संपादित करें]

    भारत ने 1980 के दशक में सुधारों को काफी मंथर गति से लागू किया था, लेकिन 1991 के भुगतान संतुलन के संकट के बाद यह मुख्यधारा की नीति बन गई। इसी साल सोवियत संघ के पतन ने भारतीय राजनीतिज्ञों को इस बात का अहसास करा दिया कि समाजवाद पर और जोर भारत को संकट से नहीं उबार पाएगा और चीन में देंग शियाओपिंग के कामयाब बाजारोन्मुख सुधारों ने बता दिया था कि आर्थिक उदारीकरण के बेशुमार फायदे हैं। भारत की सुधार प्रक्रिया उत्तरोत्तर और अनियमित थी, लेकिन इसके संचित (cumulative) प्रभाव ने 2003-08 में भारतf को चमत्कारी अर्थव्यवस्था बना दिया जहां सकल राष्ट्रीय उत्पाद की विकास दर 9 प्रतिशत और प्रति व्यक्ति वार्षिक सकल राष्ट्रीय उत्पाद विकास दर 7 प्रतिशत से ज्यादा हो गई।[1]

    आर्थिक सुधार की दिशा में १९९१ से अब तक उठाये गये कुछ प्रमुख कदम निम्नलिखित हैं-

    (१) औद्योगिक लाइसेंस प्रथा की समाप्ति,

    (२) आयात शुल्क में कमी लाना तथा मात्रात्‍म तरीकों को चरणबद्ध तरीके से हटाना,

    (३) बाजार की शक्तियों द्वारा विनिमय दर का निर्धारण (सरकार द्वारा नहीं),

    (४) वित्तीय क्षेत्र में सुधार,

    (५) पूँजी बाजार का उदारीकरण,

    (६) सार्वजनिक क्षेत्र में निजी क्षेत्र का प्रवेश,

    (७) निजीकरण,

    (८) उत्पाद शुल्क में कमी,

    (९) आयकर तथा निगम कर में कमी,

    (१०) सेवा कर की शुरूआत,

    (११) शहरी सुधार,

    (१२) सरकार में कर्मचारियों की संख्या कम करना,

    (१३) पेंशन क्षेत्र में सुधार,

    (१४) मूल्य संवर्धित कर (वैट) आरम्भ करना,

    (१५) रियारतों (सबसिडी) में कमी,

    (१६) राजकोषीय‍ उत्तरदायित्व और बजट प्रबन्धन (FRBM) अधिनियम २००३ को पारित कराना।

    सन्दर्भ[संपादित करें]

    ↑ "जानलेवा समाजवाद (स्वामीनाथन एस अय्यर)". मूल से 4 जुलाई 2015 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 3 जुलाई 2015.

    इन्हें भी देखें[संपादित करें]

    १९९१ का भारत का आर्थिक संकट

    उदारीकरण, निजीकरण और वैश्वीकरण

    भारतीय अर्थव्यवस्था

    बाहरी कड़ियाँ[संपादित करें]

    आर्थिक चमत्कार के 20 वर्ष

    संक्षेप में आर्थिक सुधार

    आर्थिक सुधार की पहेली अब तक है अनबूझी

    भारत बनेगा तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था : पनगढ़िया (वेबदुनिया, जुलाई २०१५)

    [दिखाएँ] देवासं भारतीय अर्थव्यवस्था

    श्रेणी: भारत की अर्थव्यवस्था

    स्रोत : hi.wikipedia.org

    1991 के आर्थिक सुधार एवं 2021 का संकट

    इस एडिटोरियल में कोविड-19 महामारी के दौरान अर्थव्यवस्था के सामने आ रही संकट के समाधान हेतु 30 वर्ष पूर्व वर्ष 1991 में लागू किये गए आर्थिक सुधारों से सीख लेने के विचार पर चर्चा की गई है।

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    1991 के आर्थिक सुधार एवं 2021 का संकट

    22 Jun 2021 10 min read टैग्स: सामान्य अध्ययन-III COVID-19

    यह एडिटोरियल दिनांक 19/06/2021 'द हिन्दुस्तान टाइम्स' में प्रकाशित लेख “From 1991, the lessons for the India of 2021” पर आधारित है। इसमें कोविड-19 महामारी के दौरान अर्थव्यवस्था के सामने आ रही संकट के समाधान हेतु 30 वर्ष पूर्व वर्ष 1991 में लागू किये गए आर्थिक सुधारों से सीख लेने के विचार पर चर्चा की गई है।

    संदर्भ 

    तीस वर्ष पूर्व वर्ष 1991 में शुरू किये गए उदारीकरण की नीति का वर्ष 2021 में 30 साल पूरे हो गए। वर्ष 1991 के  सुधार भारत के स्वतंत्रता के बाद के इतिहास में एक ऐतिहासिक क्षण था जिसने अर्थव्यवस्था की प्रकृति को मौलिक तरीकों से बदल दिया। भुगतान संतुलन की गंभीर समस्या ने वर्ष 1991 में आर्थिक संकट को जन्म दिया। इससे निपटने के लिये भारत के आर्थिक प्रतिष्ठान ने भारत की व्यापक आर्थिक बैलेंस शीट को सुधारने के लिये एवं विकास की गति को बढ़ाने के लिये एक बहुआयामी सुधार एजेंडा शुरू किया।

    तीन दशक बाद कोविड-19 महामारी के कारण देश की अर्थव्यवस्था के सामने एक और बड़ी परीक्षा सामने खड़ी है। हालांकि दोनों संकट अपने आप में काफी भिन्न हैं, किंतु दोनों की गंभीरता तुलनीय हैं।

    वर्ष 1991 के सुधारों का महत्त्व

    1990 के बाद की भारत की आर्थिक रणनीति 

    इसके तहत आर्थिक व्यवस्था पर हावी होने वाले एवं विकास की गति को बाधित करने वाले गैर-ज़रूरी नियंत्रणकारी और परमिट के विशाल तंत्र को समाप्त कर दिया।

    इसके तहत राज्य की भूमिका को आर्थिक लेन-देन के सूत्रधार के रूप में और वस्तुओं और सेवाओं के प्राथमिक प्रदाता के बजाय एक तटस्थ नियामक के रूप में परिभाषित किया।

    इसने आयात प्रतिस्थापन के बदले और वैश्विक व्यापार प्रणाली के साथ पूरी तरह से एकीकृत होने का नेतृत्व किया।

    सुधारों का प्रभाव

    21वीं सदी के पहले दशक तक भारत को सबसे तेज़ी से उभरते बाज़ारों में से एक के रूप में देखा जाने लगा।

    वर्ष 1991 के सुधारों ने भारतीय उद्यमियों की ऊर्जा को एक उपयुक्त मंच प्रदान किया।

    उपभोक्ताओं को विकल्प दिया और भारतीय अर्थव्यवस्था का चेहरा बदल दिया। पहली बार देश में गरीबी की दर में काफी कमी आई।

    वर्ष 1991 के संकट की वर्ष 2021 से तुलना

    उच्च राजकोषीय घाटा

    वर्ष 1991 संकट: वर्ष 1991 का संकट अधिक घरेलू मांग के कारण आयात में कमी और चालू खाता घाटे (CAD) के बढ़ने के कारण हुआ।

    विश्वास की कमी के कारण धन का आउटफ्लो शुरू हो गया जिस कारण CAD के वित्तपोषण हेतु भंडार में तेज़ी से गिरावट हुई।

    2021 संकट: महामारी से प्रेरित लॉकडाउन ने आर्थिक गतिविधियों को एक हद तक रोक दिया है। इसके परिणामस्वरूप उत्पादन में गिरावट आई है साथ ही, मांग में भी गिरावट आई है।

    मांग में गिरावट का सामना करते हुए, राजकोषीय घाटे को बढ़ाना उचित है। सरकार ने पिछले साल राजकोषीय घाटे को बढ़ाकर 9.6% करने की अनुमति दी थी।

    समष्टि आर्थिक स्थिति

    वर्ष 1991 का संकट: भारत को राजकीय कर्ज (Default on Sovereign Debt) में चूक से बचने के लिये टनों सोना गिरवी रखना पड़ा। तब भारत के पास महत्त्वपूर्ण आयातों का भुगतान करने के लिये विदेशी मुद्रा लगभग समाप्त हो गई थी।वर्ष 2021 का संकट: वर्तमान मे अर्थव्यवस्था तीव्र गति से सिकुड़ रही है, केंद्र सरकार राज्यों के प्रति अपनी राजस्व प्रतिबद्धताओं में चूक कर रही है।

    आज भारत में बेरोज़गारी बढ़ती जा रही है एवं नौकरियाँ दिन-ब-दिन खत्म हो रही है; दशकों से गरीबी की दर में गिरावट के बाद अब यह बढ़ती हुई नज़र आ रही है।

    सुधारों की आलोचना

    वर्ष 1991 के सुधार: वर्ष 1991 के सुधार पैकेज को अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष (IMF) और विश्व बैंक द्वारा निर्धारित किये जाने के कारण भारी आलोचना का सामना करना पड़ा।

    इसके अलावा, सुधार के रूप में कुछ कंपनियों को पूंजीपतियों को बेचने के कारण आलोचना की गई थी।

    2021 सुधार: सुधारों के लिये ऐसा केंद्रीकृत  दृष्टिकोण अब काम नहीं कर सकता है। इसे हाल ही में बनाए गए तीन कृषि कानूनों के प्रति उभरे विरोध में देखा जा सकता है।

    आगे की राह

    सार्वजनिक व्यय को बनाए रखना: अल्पावधि में सार्वजनिक व्यय को बनाए रखना विकास को पुनर्जीवित करने की कुंजी है।

    वर्तमान में टीकाकरण के लिये अधिक धन उपलब्ध कराने और मनरेगा की विस्तारित मांग को पूरा करने के लिये सार्वजनिक व्यय अत्यधिक वांछनीय है क्योंकि यह एक सुरक्षा तंत्र साबित हो रहा है।

    साथ ही, अगले तीन वर्षों में घाटे को कम करने एवं राजस्व लक्ष्यों को और अधिक वास्तविक स्तर पर संशोधित करने के लिये एक विश्वसनीय रास्ता अपनाने की आवश्यकता है।

    पारस्परिक रूप से सहायक सुधार: वर्ष 1991 के सुधार सफल हुए क्योंकि वे पारस्परिक रूप से सहायक सुधारों के एक मुख्य समस्या के समाधान के आसपास केंद्रित थे।

    अतः सुधारों की एक लंबी सूची के बदले प्राथमिकता सूची के आधार पर समस्याओं को एक अधिक केंद्रित रणनीतिक दृष्टिकोण से सुलझाने की आवश्यकता है।

    इस संदर्भ में बिजली क्षेत्र, वित्तीय प्रणाली, शासन संरचना और यहाँ तक ​​कि कृषि विपणन में सुधार की आवश्यकता है।

    निवेश के माहौल में सुधार: निवेश समग्र मांग और आर्थिक विकास का एक प्रमुख स्रोत है। निवेश के बेहतर विकल्प के सन्दर्भ में कुछ धारणाएँ प्रमुख हैं, जैसे:

    नीतिगत ढाँचा नए निवेशों का समर्थन करने वाला होना चाहिये ताकि उद्यमियों को जोखिम लेने के लिये प्रोत्साहित किया जा सके।

    शांतिपूर्ण वातावरण और सामाजिक एकता जैसे गैर-आर्थिक कारक भी प्रासंगिक हैं। अतः सरकार को इन सभी मोर्चों पर काम करना शुरू कर देना चाहिए।

    विनिवेश का मारुति मॉडल: सरकार को रणनीतिक भागीदारों के लिये बैंकों सहित प्रत्येक उपक्रम में अपना स्वामित्व कम कर 26% तक रखना चाहिये, जैसा कि सरकार ने वर्ष 1991 के सुधारों के बाद मारुति विनिवेश के तहत किया था।

    इस संदर्भ में अगले छह महीनों के भीतर एयर इंडिया, बीपीसीएल और कॉनकॉर जैसे सार्वजनिक उपक्रमों में सरकार विनिवेश कर सकती है। इस प्रतिबद्धता के साथ कि अगले पाँच वर्षों के लिये हर साल दो दर्जन सार्वजनिक उपक्रमों को 'मारुति मॉडल' में विभाजित किया जाएगा।

    इससे सरकार को अरबों रुपये के निवेश योग्य अधिशेष पैदा करने में मदद मिलेगी।

    स्रोत : www.drishtiias.com

    1991के आर्थिक सुधार के 30 सालों के बाद, ‘आईये, भविष्य को गले लगाएं!’

    1991 में इसके पहले पब्लिकेशन को पी एन धर, एम नरसिम्हन, आई जी पटेल और आर एन मल्होत्रा ने शक्ल दी थी, जिसका शीर्षक था, ‘आर्थिक सुधार का एजेंडा

    1991के आर्थिक सुधार के 30 सालों के बाद, ‘आईये, भविष्य को गले लगाएं!’

    N K SINGH

    1991 के सुधार व्यापक थे और उसका अर्थव्यवस्था के बड़े हिस्से पर असर हुआ था. लेकिन कुल मिलाकर उस वक्त की पॉलिटिकल इकॉनमी के कारण उन सुधारों का पूरा फायदा नहीं मिला

    Walter Bibikow — DigitalVision/Getty

    भूमिका

    ORF का चार्टर (संविधान) भारत के आर्थिक विकास से ताल्लुक रखता है. 1991 में इसके पहले पब्लिकेशन को पी एन धर, एम नरसिम्हन, आई जी पटेल और आर एन मल्होत्रा ने शक्ल दी थी, जिसका शीर्षक था, ‘आर्थिक सुधार का एजेंडाः संयुक्त बयान.’ इस दस्तावेज़ को लिखने वाले अपने-अपने क्षेत्र के दिग्गज थे. वे देश में नीति-निर्माण की उलझनों को बखूबी समझते थे. उन्हें यह भी पता था कि इसके लिए पहले से चले आ रही समस्याएं कितनी ज़िम्मेदार हैं. वे समस्याएं, जिन्हें बदलाव का राजनीतिक अर्थशास्त्र (पॉलिटिकल इकॉनमी) कहा जाता है. ये तब की पॉलिटिकल इकॉनमी की सीमाओं को अच्छी तरह समझते थे.

    मुझे यहां कई आलेखों का सारांश समेटते हुए एक भूमिका लिखने का सम्मान मिला है. इन लेखों में देश की पिछले 30 साल की यात्रा का जिक्र है. जिन लोगों ने ये लेख लिखे हैं, वे हमारी समस्याओं और चुनौतियों को बखूबी समझते हैं और इनमें से कइयों ने पिछले 30 वर्षों में देश में हुए बदलावों को काफी करीब से देखा है. इनमें से हरेक ने इस दौरान हुए बदलावों के किसी न किसी महत्वपूर्ण पहलू पर टिप्पणी की है. इसके साथ उन्होंने उन बदलावों की ओर भी ध्यान दिलाया है, जो नहीं हो सके. सबसे बड़ी बात यह है कि लेखकों ने भविष्य पर अपनी नज़र बनाए रखी है.

    इसमें कोई शक नहीं कि 1991 का भुगतान संतुलन संकट अचानक नहीं आ खड़ा हुआ था. 80 के दशक में कई संकट और चुनौतियां सामने आए, जिन्होंने 1991 में एक बड़े संकट का रूप ले लिया. 80 के दशक में हमारे सामने जो चुनौतियां आईं, उनकी वजह तत्कालीन सरकारों का हद से अधिक ख़र्च रहा. हमने उस पर अंकुश लगाने की कोशिश नहीं की. दूसरे देशों के साथ देश ने रुपये में व्यापार करने का समझौता किया हुआ था. इसके साथ केंद्रीय योजना पर चलने वाले देशों और अन्य राष्ट्रों के साथ हमारे रिश्ते काफी अच्छे थे. इससे तत्कालीन भारतीय सरकारों को तसल्ली मिलती थी. उन्हें लगता था कि कोई संकट खड़ा हुआ तो भी इन देशों की बदौलत उससे बाहर निकलने का रास्ता मिल जाएगा. कई बार तात्कालिक समस्याओं को सुलझाने के लिए भारत वैश्विक संस्थाओं और दूसरे जरियों से कर्ज लेता रहता था. इन मुश्किलों से उबरने के लिए जरूरी राजकोषीय और ढांचागत (स्ट्रक्चरल) बदलाव नहीं किए गए. हम उन्हें टालते रहे, जबकि चीन और दूसरे एशियाई देशों ने ऐसी पहल हमसे काफी पहले कर दी थी. कहते हैं कि पांव उतना ही पसारना चाहिए, जितनी लंबी चादर हो. सरकारी खजाने की हालत की परवाह किए बिना खर्च करने की आदत 1991 में एक डरावने रूप में हमारे सामने आई. यूं तो इस संकट की आहट 1989 से ही दिखने लगी थी, लेकिन तब इस पर ध्यान नहीं दिया गया. हमने इस बारे में अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ) की चेतावनी की भी अनदेखी की, जिसने संकट से बचने के लिए एक योजना का प्रस्ताव रखा था. इस मुश्किल को टालने की पहल आगामी चुनावों तक टाल दी गई. लेकिन इस बात को याद रखना चाहिए कि इतिहास अक्सर आपको दूसरा मौका नहीं देता.

    इसमें कोई शक नहीं कि 1991 का भुगतान संतुलन संकट अचानक नहीं आ खड़ा हुआ था. 80 के दशक में कई संकट और चुनौतियां सामने आए, जिन्होंने 1991 में एक बड़े संकट का रूप ले लिया. 80 के दशक में हमारे सामने जो चुनौतियां आईं, उनकी वजह तत्कालीन सरकारों का हद से अधिक ख़र्च रहा. हमने उस पर अंकुश लगाने की कोशिश नहीं की

    1989 से 1991 के बीच चंद्रशेखर के नेतृत्व वाली केंद्र की सरकार ने इन हालात में कई निर्णायक कदम उठाए. इनमें से एक था सोना गिरवी रखना ताकि देश बकाए कर्ज़ की किस्तें चुका पाए. उस दौर में केंद्र में बार-बार सरकारें बदल रही थीं और उससे अस्थिरता की स्थिति बनी थी. इन वजहों से संकट से निपटने के लिए अक्सर जिस तेज़ी से राजनीतिक पहल की जरूरत थी, वह भी धीमी पड़ने लगी. कर्ज़ संकट और हद से अधिक ख़र्च करने पर भी रोक लगाने की कोशिश हुई, जो उस वक्त तक ऐसे स्तर पर पहुंच चुका था कि उसका टिकाऊ रहना मुश्किल हो गया था.

    1991 के सुधार और उसकी महत्ता

    1991 के सुधार और उसकी महत्ता

    ये सारी बातें अब इतिहास का हिस्सा हो चुकी हैं. 1991 में जो आर्थिक सुधार हुए, वे बहुत व्यापक थे. उनका अर्थव्यवस्था के बड़े हिस्से पर असर पड़ा. हालांकि, तब उन सुधारों का पूरा फ़ायदा माकूल राजनीतिक हालात नहीं होने के कारण नहीं उठाया जा सका. इस पहलू की ओर ए.के.भट्टाचार्य ने अपने लेख में ध्यान दिलाया है. इसे विडंबना ही कहा जाएगा, लेकिन 1991 के संकट ने देश के सामने कई अवसर भी पेश किए थे. अफ़सोस की बात है कि तत्कालीन पॉलिटिकल इकॉनमी और राजनीतिक माहौल के कारण हम उनका लाभ नहीं ले सके. 1991 में व्यापार नीति, औद्योगिक लाइसेंसिंग, बैंकिंग क्षेत्र में सुधार, बहुत संभलते हुए प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफडीआई) की अनुमति देने के साथ नियम-कायदों में ज़बरदस्त बदलाव किए गए, इसमें कोई शक नहीं कि मैक्रो इकॉनमी, राजकोषीय और ढांचागत स्तर पर ये दूरगामी बदलाव लाने वाले कदम थे. लेकिन शायद इन सुधारों पर हमारा भरोसा नहीं था, जिसकी ओर गौतम चिकरमाने ने अपने दो लेखों- ‘ऑन विंडोज़ ऑन रिफॉर्म्स’ यानी सुधारों की खिड़की और ‘ऑन कंस्ट्रेंट्स टू कन्विक्शन’ यानी भरोसे की सीमाएं – में इशारा किया है. सुधारों को लेकर यह वही मानसिक बोझा था, जिसे हम ढोते रहे. निजी क्षेत्र की पूंजी पर हमारा संदेह बना रहा. आर्थिक विकास सरकारी ख़र्च की बदौलत ही हो सकता है, इस भ्रम से भी हमें नुकसान हुआ.

    इसी तरह से, वित्तीय क्षेत्र के सुधारों को लेकर चुनौतियों की ओर मोनिका हालन के आलेख में ध्यान दिलाया गया है. नरसिम्हन कमिटी की रिपोर्ट में दिए गए सुझावों के कारण बैंकिंग क्षेत्र में बड़े बदलाव हुए. उन्हें काम करने की अधिक स्वायत्ता मिली. प्रायॉरिटी सेक्टर को कर्ज़ देने और सरकार की ओर से ब्याज़ दरें तय किए जाने के मामलों में भी उन्हें राहत दी गई. प्रतिभूति एवं विनिमय बोर्ड (सेबी) की एक स्वतंत्र नियामक के रूप में स्थापना हुई, जो महत्वपूर्ण बदलाव था. हालांकि, बैंकों को पूरी तरह से मुक्त करने या वित्तीय इकाइयों के निजीकरण की पहल नहीं हुई. पब्लिक सेक्टर के बैंकों के निजीकरण में भी हमें सफ़लता नहीं मिली है और यह अभी तक एक अभिशाप बना हुआ है.

    स्रोत : www.orfonline.org

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    Mohammed 5 month ago
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