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    Satya Ke Prayog

    जीवनी/आत्मकथा >> सत्य के प्रयोग

    सत्य के प्रयोग

    महात्मा गाँधी

    सत्य के प्रयोग महात्मा गाँधी

    प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017

    पृष्ठ :716

    मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक पुस्तक क्रमांक : 9824

    1 पाठकों को प्रिय

    महात्मा गाँधी की आत्मकथा

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    सत्य के प्रयोग प्रस्तावना जन्म बचपन बाल-विवाह पतित्व हाईस्कूल में दुखद प्रसंग-1 दुखद प्रसंग-2 चोरी और प्रायश्चित

    पिता की मृत्यु और मेरी दोहरी शरम

    धर्म की झांकी विलायत की तैयारी जाति से बाहर आखिर विलायत पहुँचा मेरी पसंद 'सभ्य' पोशाक में फेरफार खुराक के प्रयोग लज्जाशीलता मेरी ढाल असत्यरूपी विष धर्मों का परिचय निर्बल के बल राम नारायण हेमचंद्र महाप्रदर्शनी मेरी परेशानी रायचंदभाई संसार-प्रवेश पहला मुकदमा पहला आघात

    दक्षिण अफ्रीका की तैयारी

    नेटाल पहुँचा अनुभवों की बानगी प्रिटोरिया जाते हुए अधिक परेशानी

    प्रिटोरिया में पहला दिन

    ईसाइयों से संपर्क

    हिन्दुस्तानियों से परिचय

    कुलीनपन का अनुभव मुकदमे की तैयारी धार्मिक मन्थन को जाने कल की नेटाल में बस गया रंग-भेद

    नेटाल इंडियन कांग्रेस

    बालासुंदरम् तीन पाउंड का कर धर्म-निरीक्षण घर की व्यवस्था देश की ओर हिन्दुस्तान में

    राजनिष्ठा और शुश्रूषा

    बम्बई में सभा पूना में जल्दी लौटिए तूफ़ान की आगाही तूफ़ान कसौटी शान्ति बच्चों की सेवा सेवावृत्ति ब्रह्मचर्य-1 ब्रह्मचर्य-2 सादगी बोअर-युद्ध

    सफाई आन्दोलन और अकाल-कोष

    देश-गमन देश में क्लर्क और बैरा कांग्रेस में

    लार्ड कर्जन का दरबार

    गोखले के साथ एक महीना-2

    गोखले के साथ एक महीना-3

    काशी में बम्बई में स्थिर हुआ धर्म-संकट

    फिर दक्षिण अफ्रीका में

    किया-कराया चौपट

    एशियाई विभाग की नवाबशाही

    कड़वा घूंट पिया बढ़ती हुई त्यागवृति निरीक्षण का परिणाम

    निरामिषाहार के लिए बलिदान

    मिट्टी और पानी के प्रयोग

    एक सावधानी बलवान से भिड़ंत

    एक पुण्यस्मरण और प्रायश्चित

    अंग्रेजों का गाढ़ परिचय

    अंग्रेजों से परिचय इंडियन ओपीनियन

    कुली-लोकेशन अर्थात् भंगी-बस्ती

    महामारी-1 महामारी-2 लोकेशन की होली

    एक पुस्तक का चमत्कारी प्रभाव

    फीनिक्स की स्थापना पहली रात पोलाक कूद पड़े जाको राखे साइयां

    घर में परिवर्तन और बालशिक्षा

    जुलू-विद्रोह हृदय-मंथन

    सत्याग्रह की उत्पत्ति

    आहार के अधिक प्रयोग पत्नी की दृढ़ता घर में सत्याग्रह संयम की ओर उपवास शिक्षक के रुप में अक्षर-ज्ञान आत्मिक शिक्षा भले-बुरे का मिश्रण

    प्रायश्चित-रुप उपवास

    गोखले से मिलन लड़ाई में हिस्सा धर्म की समस्या छोटा-सा सत्याग्रह गोखले की उदारता

    दर्द के लिए क्या किया

    रवानगी वकालत के कुछ स्मरण चालाकी

    मुवक्किल साथी बन गये

    मुवक्किल जेल से कैसे बचा

    पहला अनुभव

    गोखले के साथ पूना में

    क्या वह धमकी थी शान्तिनिकेतन

    तीसरे दर्जे की विडम्बना

    मेरा प्रयत्न कुंभ मेला लक्षमण झूला आश्रम की स्थापना कसौटी पर चढ़े गिरमिट की प्रथा नील का दाग बिहारी की सरलता

    अंहिसा देवी का साक्षात्कार

    मुकदमा वापस लिया गया

    कार्य-पद्धति साथी ग्राम-प्रवेश उजला पहलू

    मजदूरों के सम्पर्क में

    आश्रम की झांकी

    उपवास - खेड़ा-सत्याग्रह

    'प्याज़चोर'

    खेड़ा की लड़ाई का अंत

    एकता की रट रंगरूटों की भरती मृत्यु-शय्या पर

    रौलट एक्ट और मेरा धर्म-संकट

    वह अद्भुत दृश्य वह सप्ताह    - 1 वह सप्ताह - 2 'पहाड़-जैसी भूल'

    'नवजीवन' और 'यंग इंडिया'

    पंजाब में

    खिलाफ़त के बदले गोरक्षा

    अमृतसर की कांग्रेस कांग्रेस में प्रवेश खादी का जन्म चरखा मिला ! एक संवाद असहयोग का प्रवाह

    नागपुर में पूर्णाहुति

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    लोगों की राय

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    स्रोत : readbooks.pustak.org

    'सत्य के प्रयोग अथवा आत्मकथा

    'Satya Ke Prayog - Dukhad Prasang - 1' | an excerpt from Mahatma Gandhi's Autobiography 'My Experiments with Truth', in Hindi.

    आत्मकथ्य

    सत्य के प्रयोग अथवा आत्मकथा – दुःखद प्रसंग – 1

    By महात्मा गाँधी - Share

    मैं कह चुका हूँ कि हाईस्कूल में मेरे थोड़े ही विश्वासपात्र मित्र थे। कहा जा सकता है कि ऐसी मित्रता रखनेवाले दो मित्र अलग-अलग समय में रहे। एक का सम्बन्ध लम्बे समय तक नहीं टिका, यद्यपि मैंने मित्र को छोड़ा नहीं था। मैंने दूसरी सोहबत की, इसलिए पहले ने मुझे छोड़ दिया। दूसरी सोहबत मेरे जीवन का एक दुःखद प्रकरण है। यह सोहबत बहुत वर्षों तक रही। इस सोहबत को निभाने में मेरी दृष्टि सुधारक की थी। इन भाई की पहली मित्रता मेरे मँझले भाई के साथ थी। वे मेरे भाई की कक्षा में थे। मैं देख सका था कि उनमें कई दोष है। पर मैंने उन्हें वफादार मान लिया था। मेरी माताजी, मेरे जेठे भाई और मेरी धर्मपत्नी तीनों को यह सोहबत कड़वी लगती थी। पत्नी की चेतावनी को तो मैं अभिमानी पति क्यों मानने लगा? माता की आज्ञा का उल्लंघन मैं करता ही न था। बड़े भाई की बात मैं हमेशा सुनता था। पर उन्हें मैंने यह कह कर शान्त किया : “उसके जो दोष आप बाताते है, उन्हें मैं जानता हूँ। उसके गुण तो आप जानते ही नहीं। वह मुझे गलत रास्ते नहीं ले जाएगा, क्योंकि उसके साथ मेरा सम्बन्ध उसे सुधारने के लिए ही है। मुझे यह विश्वास है कि अगर वह सुधर जाए, तो बहुत अच्छा आदमी निकलेगा। मैं चाहता हूँ कि आप मेरे विषय में निर्भय रहें।”

    मैं नहीं मानता कि मेरी इस बात से उन्हें संतोष हुआ, पर उन्होंने मुझ पर विश्वास किया और मुझे मेरे रास्ते जाने दिया।

    बाद में मैं देख सका कि मेरा अनुमान ठीक नहीं था। सुधार करने के लिए भी मनुष्य को गहरे पानी में नहीं पैठना चाहिए। जिसे सुधारना है उसके साथ मित्रता नहीं हो सकती। मित्रता में अद्वैत-भाव होता है। संसार में ऐसी मित्रता क्वचित् ही पाई जाती है। मित्रता समान गुणवालों के बीच शोभती और निभती है। मित्र एक-दूसरे को प्रभावित किए बिना रह ही नहीं सकते। अतएव मित्रता में सुधार के लिए बहुत अवकाश रहता है। मेरी राय है कि घनिष्ठ मित्रता अनिष्ट है, क्योंकि मनुष्य दोषों को जल्दी ग्रहण करता है। गुण ग्रहण करने के लिए प्रयास की आवश्यकता है। जो आत्मा की, ईश्वर की मित्रता चाहता है, उसे एकाकी रहना चाहिए, अथवा समूचे संसार के साथ मित्रता रखनी चाहिए। ऊपर का विचार योग्य हो अथवा अयोग्य, घनिष्ठ मित्रता बढ़ाने का मेरा प्रयोग निष्फल रहा।

    जिन दिनों मैं इन मित्र के सम्पर्क में आया, उन दिनों राजकोट में ‘सुधारपंथ’ का जोर था। मुझे इन मित्र ने बताया कि कई हिंदू शिक्षक छिपे-छिपे मांसाहार और मद्यपान करते हैं। उन्होंने राजकोट के दूसरे प्रसिद्ध गृहस्थों के नाम भी दिए। मेरे सामने हाईस्कूल में कुछ विद्यार्थियों के नाम भी आए। मुझे तो आश्चर्य हुआ और दुःख भी। कारण पूछने पर यह दलील दी गई : “हम मांसाहार नहीं करते इसलिए प्रजा के रूप में हम निर्वीर्य है। अंग्रेज हम पर इसलिए राज्य करते है कि वे मांसाहारी हैं। मैं कितना मजबूत हूँ और कितना दौड़ सकता हूँ, सो तो तुम जानते ही हो। इसका कारण मांसाहार ही है। मांसाहारी को फोड़े नहीं होते, होने पर झट अच्छे हो जाते है। हमारे शिक्षक मांस खाते हैं, इतने प्रसिद्ध व्यक्ति खाते हैं, सो क्या बिना समझे खाते हैं? तुम्हें भी खाना चाहिए। खाकर देखो कि तुममें कितनी ताकत आ जाती है।”

    ये सब दलीलें किसी एक दिन नहीं दी गई थीं। अनेक उदाहरणों से सजाकर इस तरह की दलीलें कई बार दी गईं। मेरे मँझले भाई तो भ्रष्ट हो चुके थे। उन्होंने इन दलीलों की पुष्टि की। अपने भाई की तुलना में मैं तो बहुत दुबला था। उनके शरीर अधिक गठीले थे। उनका शारीरिक बल मुझसे कहीं ज्यादा था। वे हिम्मतवर थे। इन मित्र के पराक्रम मुझे मुग्ध कर देते थे। वे मनचाहा दौड़ सकते थे। उनकी गति बहुत अच्छी थी। वे खूब लम्बा और ऊँचा कूद सकते थे। मार सहन करने की शक्ति भी उनमें खूब थी। अपनी इस शक्ति का प्रदर्शन भी वे मेरे सामने समय-समय पर करते थे। जो शक्ति अपने में नहीं होती, उसे दूसरों में देखकर मनुष्य को आश्चर्य होता ही है। मुझमें दौड़ने-कूदने की शक्ति नहीं के बराबर थी। मैं सोचा करता कि मैं भी बलवान बन जाऊँ, तो कितना अच्छा हो!

    इसके अलावा मैं डरपोक था। चोर, भूत, साँप आदि के डर से घिरा रहता था। ये डर मुझे हैरान भी करते थे। रात कहीं अकेले जाने की हिम्मत नहीं थी। अँधेरे में तो कहीं जाता ही न था। दीये के बिना सोना लगभग असम्भव था। कहीं इधर से भूत न आ जाए, उधर से चोर न आ जाए और तीसरी जगह से साँप न निकल आए! इसलिए बत्ती की जरूरत तो रहती ही थी। पास में सोई हुई और अब कुछ सयानी बनी हुई पत्नी से भी अपने इस डर की बात मैं कैसे करता? मैं यह समझ चुका था कि वह मुझसे ज्यादा हिम्मतवाली है और इसलिए मैं शरमाता था। साँप आदि से डरना तो वह जानती ही न थी। अँधेरे में वह अकेली चली जाती थी। मेरे ये मित्र मेरी इन कमजोरियों को जानते थे। मुझसे कहा करते थे कि वे तो जिंदा साँपों को भी हाथ से पकड़ लेते थे। चोर से कभी नहीं डरते। भूत को तो मानते ही नहीं। उन्होंने मुझे जँचाया कि यह प्रताप मांसाहार का है।

    इन्हीं दिनों नर्मद (गुजराती के प्रसिद्ध कवि, 1833-86। अर्वाचीन गद्य के निर्माता। गुजरती की नवीन काव्यधारा के एक प्रधान कवि) का नीचे लिखा पद स्कूलों में गाया जाता था:

    अंग्रेजो राज्य करे, देशी रहे दबाई

    देशी रहे दबाई, जोने बेनां शरीर भाई।

    पेलो पाँच हाथ पूरो, पूरो पाँच सेनें।।

    (अंग्रेज राज्य करते हैं और हिन्दुस्तानी दबे रहते हैं। दोनों के शरीर तो देखो। वे पूरे पाँच हाथ के है। एक-एक पाँच सौ के लिए काफी है।)

    इन सब बातों का मेरे मन पर पूरा-पूरा असर हुआ। मैं पिघला। मैं यह मानने लगा कि मांसाहार अच्छी चीज है। उससे मैं बलवान और साहसी बनूँगा। समूचा देश मांसाहार करे, तो अंग्रेजों को हराया जा सकता है। मांसाहार शुरू करने का दिन निश्चित हुआ। इस निश्चय – इस आरम्भ – का अर्थ सब पाठक समझ नहीं सकेंगे। गाँधी-परिवार वैष्णव संप्रदाय का है। माता-पिता बहुत कट्टर वैष्णव माने जाते थे। हवेली (वैष्णव-मंदिर) में हमेशा जाते थे। कुछ मंदिर तो परिवार के ही माने जाते थे। फिर गुजरात में जैन संप्रदाय का बड़ा जोर है। उसका प्रभाव हर जगह, हर काम में पाया जाता है। इसलिए मांसाहार का जैसा विरोध और तिरस्कार गुजरात में और श्रावकों तथा वैष्णवों में पाया जाता है, वैसा हिन्दुस्तान या दुनिया में और कहीं नहीं पाया जाता। ये मेरे संस्कार थे।

    स्रोत : poshampa.org

    'उसने गांधी को क्यों मारा'

    गांधी की हत्या, उसके कारण, साजिश और 'विकृत मानसिकता' के उभार को अपनी हालिया किताब 'उसने गांधी को क्यों मारा ' में लेखक अशोक कुमार पांडेय ने प्रमाणिक स्त्रोतों के जरिए दर्ज किया है.

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    समाज-संस्कृति

    ‘उसने गांधी को क्यों मारा’- गांधी हत्या के पीछे के ‘वैचारिक षड्यंत्र’ को उजागर करती किताब

    ‘उसने गांधी को क्यों मारा’- गांधी हत्या के पीछे के ‘वैचारिक षड्यंत्र’ को उजागर करती किताब गांधी की हत्या, उसके कारण, साजिश और 'विकृत मानसिकता' के उभार को अपनी हालिया किताब 'उसने गांधी को क्यों मारा ' में लेखक अशोक कुमार पांडेय ने प्रमाणिक स्त्रोतों के जरिए दर्ज किया है.

    कृष्ण मुरारी

    30 January, 2021 08:00 am IST

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    महात्मा गांधी/ फोटो- फाइल

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    ‘भारत एक अजीब देश है. इस देश में सत्ता हासिल करने वालों को नहीं त्याग करने वालों को सम्मान मिलता है.’ यह बात सुभाषचंद्र बोस ने अपनी प्रेमिका एमिली को लिखे एक खत में कहा था.

    महात्मा गांधी भारतीय चिंतन और इसकी ऐतिहासिक यात्रा में ऐसे ही त्याग करने वाले पुरुष के तौर पर याद किए जाते हैं जो पूरे विश्व को अपने वैचारिक और व्यक्तिगत स्थापनाओं से प्रभावित करते आ रहे हैं.

    एक तरफ भारत को यह गौरव प्राप्त है कि इस देश में गांधी जैसे व्यक्ति ने जन्म लिया वहीं दूसरी तरफ नथूराम गोडसे जैसा कलंकित व्यक्ति भी इसी धरती से है जिसने गांधी की हत्या की.

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    गांधी की हत्या, उसके कारण, साजिश और विकृत मानसिकता के उभार को अपनी हालिया किताब ‘उसने गांधी को क्यों मारा ‘ में लेखक अशोक कुमार पांडेय ने प्रमाणिक स्त्रोतों के जरिए दर्ज किया है.

    किताब की भूमिका में लेखक स्पष्ट तौर पर कहते हैं, ‘यह किताब इतिहास को भ्रष्ट करने वाले दौर में एक बौद्धिक सत्याग्रह है.’

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    उनके अनुसार, ‘उसने ‘गांधी को क्यों मारा’ एक ऐसा सवाल है जिस पर रोज़ इतना कुछ कहा जाता है कि सौ साल पहले का समय किसी मिथक में बदल जाता है जबकि उस कायराना हत्या से संबंधित हज़ारों पन्नों के दस्तावेज अब भी मौजूद हैं.’

    लेखक के अनुसार इतिहास की छेड़छाड़ में उनके गायब होते जाने से पहले उन्हें एक किताब में सहेज लेना सार्थक हो सकता है, शायद जरूरी भी.

    संयोग ही है कि इसी महीने गांधी की 73वीं पुण्यतिथि है. ऐसे समय में इस किताब के जरिए गांधी की हत्या से जुड़े तथ्यों और लगातार फैलाए जा रहे अफवाहों को विराम देना बेहद जरूरी हो जाता है.

    इस किताब में लेखक ने न केवल गांधी हत्या की साजिश का जिक्र विस्तार से किया है बल्कि उस मानसिकता के उभार के लिए ‘विकृत विचारधारा’ की भी बखूबी पड़ताल की है जिसके तार हिंदू महासभा, हिंदुत्ववादी संगठनों से लेकर हिंदुत्व के सबसे बड़े पैरोकारों में से एक विनायक दामोदर सावरकर तक जाते हैं.

    ‘उसने गांधी को क्यों मारा’ किताब जिसे राजकमल प्रकाशन ने छापा है

    यह भी पढ़ें: शम्सुर्रहमान फारूकी- उर्दू की सबसे रौशन मीनार

    नथूराम गोडसे- गांधी का हत्यारा

    नथूराम गोडसे ने महात्मा गांधी की 30 जनवरी 1948 को दिल्ली में एक प्रार्थना सभा के दौरान हत्या कर दी थी. लेकिन यह उसका पहला प्रयास नहीं था. वो काफी पहले से इसकी योजना बना रहा था जिसमें नारायण आप्टे, विष्णु करकरे, गोपाल गोडसे, मदनलाल पाहवा के साथ अन्य लोग भी शामिल थे.

    लेखक के अनुसार गोडसे और उसके साथी और तमाम हिंदुत्ववादी संगठन ‘हिंदू राष्ट्र के स्वप्न ‘ में महात्मा गांधी को बाधा के तौर पर देखते थे.

    लेखक ने चुन्नीभाई वैद्य को उद्धृत करते हुए लिखा है- ‘गांधी जी की हत्या दशकों के व्यवस्थित ब्रेनवाशिंग का परिणाम थी. गांधी जी कट्टरपंथी हिंदुओं की राह का कांटा बन चुके थे और वक्त के साथ-साथ यह असंतोष फोबिया बन गया.’

    लेखक ने किताब के एक पूरे खंड में गोडसे द्वारा लाल किला ट्रायल के दौरान आत्माराम की अदालत में बोले गए झूठों को अपने तथ्यों के आधार पर खारिज किया है और दावा किया है कि गोडसे के बयान महज झूठ थे.

    आम जनमानस में एक अफवाह सबसे ज्यादा प्रचलित है कि गांधी ने दबाव डालकर पाकिस्तान को 55 करोड़ रुपए दिलवाये. इस अफवाह को तमाम स्त्रोतों के जरिए लेखक ने गलत साबित किया है और इसे गोडसे और उसके समर्थित संगठनों की साजिश बताया है.

    अक्सर गांधी को बंटवारे का जिम्मेदार बोल दिया जाता है. इसे भी लेखक ने कई प्रमाणों के जरिए स्थापित किया है कि गांधी अंत अंत तक देश के बंटवारे के खिलाफ थे.

    यह भी पढ़ें: समय के साथ खुद को कैसे बदल रहा है RSS, अब उसे रहस्यमयी संगठन नहीं कहा जा सकता

    भगत सिंह- ‘क्रांतिकारी मनीषा के प्रतीक’

    लेखक ने लिखा है- ‘अपने बयान में (मुकदमे के दौरान) भगत सिंह का नाम लेते तुम्हें तो शर्म नहीं आई लेकिन अगर उन्होंने सुना होता कहीं से तो जरूर शर्म से गड़ गए होते.’

    भगत सिंह की क्रांतिकारी यात्रा को भी संक्षिप्त तौर पर लेखक ने इस किताब में समेटा है. उन्होंने भगत सिंह के कई लेखों को उद्धृत करते हुए उनके वैचारिक पहलू को भी स्पष्ट तौर पर दर्ज किया है.

    गांधी को लेकर अक्सर ये सवाल उठाया जाता है कि उन्होंने भगत सिंह की फांसी रुकवाने का प्रयास नहीं किया. लेखक ने इस मान्यता का जवाब देते हुए कहा है कि अगर गांधी-इरविन समझौते में भगत सिंह कि रिहाई की बात जोड़ी जाती तो यह समझौता टूट जाता.

    लेखक ने भगत सिंह की फांसी को रोकने के लिए गांधी द्वारा लिखी चिट्ठियों का भी हवाला दिया है और सावरकर के अनुयायियों को घेरा है और पूछा है कि सावरकर और हिंदुत्ववादी संगठनों ने भगत सिंह को बचाने की कोशिश क्यों नहीं की?

    यह भी पढ़ें: क्या मौजूदा समय में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के लिए ही खतरा बन चुके हैं नरेंद्र मोदी

    स्रोत : hindi.theprint.in

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    Mohammed 9 day ago
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